आज यू ही बिना काम के कंप्यूटर के सामने बैठे माउस घूमा रहा था, कि तभी मेरी नजर गूगल अर्थ के आइकन पे पड़ती है। मैंने सोचा आज कुछ काम तो है नही, घर बैठे दुनिया की सैर करते है। और बस झट से मेरे सामने थी पूरी दुनिया, वो भी 17 इंच के स्क्रीन पर।
अब अगला प्रश्न ये आता है कि इस दुनिया मे कौन सी जगह देखी जाए। सर्च बॉक्स मे सीधा अपना होम टाउन ही टाइप कर दिया। क्यू किया? इसका जवाब सायद इतना ही था कि मुझमे अन्यत्र के लिए अधिकार वाली भावना ही ना थी और बिना अधिकार वाली चीजो मे सिवाय देखने के ना तो कोई खास दिलचस्पी॥ भला भाड़े की वस्तु कब तक अच्छी लगेगी चाहे वो कितनी भी प्यारी क्यू ना हो।
बस फिर क्या था, मैंने अपने होम टाउन की जगह को और ज़ूम किया और उसमे अपना घर ढूढ़ने लगा । अरे ये क्या ?? मेरे घर के बगल मे एक और घर? मन मे कौतूहल हुया कौन बनवा रहा है, किसका घर है? मैंने आव देखा ना ताव झट से माँ को फोन घुमाया। एक मिनिट भी ना हुया था कौतूहल को, कि माँ ने कहा " अरे वो वर्मा जी थे जो बचपन मे तुम्हें ट्यूसन पढ़ाते थे, वही वनवा रहे है अपना घर।" (आज के युग मे चीजे भी तेजी से परिवर्तित हो रही है, और मन के भाव भी ज्यादा समय तक मन मे टिक नही पाते)
माँ के फोन रखते ही मैं बचपन वाले वर्मा जी की सोच मे गुम हो गया। और मन ही मन अपने बचपन को अपने आज से तुलना करने लगा।
कुछ भी तो नही बदला, सिवा मेरी लंबाई और चौड़ाई के। फिर लोग क्यू बदलने के लिए बोलते है?? या तो लंबाई चौड़ाई के साथ साथ मेरी नजर भी बदल है या फिर कुछ तो बदल गया जो मुझे नजर नही आ सकता।
बदला क्यू नही है सब तो बदल गया है पहले लैंड लाइन फोन था आज मोबाइल है पहले कंप्यूटर था आज पामटॉप है। पहले घर देखने के लिए घर जाना पड़ता था आज यही बैठे बैठे घर देख लेते है। पहले जीप फिएट और एम्बेसेडर ही केवल कार थी, आज तो कार ही कार की मार है। इन सब को देख के कायनात भी बदली बदली सी दीख पड़ती है ।
सब तो बदल गया है अगर कोई नही बदला है तो माँ, पापा, भाई, बहन, हवा, पानी और ये मिट्टी।
बचपन मे माँ की एक बात याद आती है कि " एक झूँठ को छिपाने के लिए 100 नए झूँठ बोलने पड़ते है। आज कुछ वैसा ही औद्योगिकीकरण के इस दौर मे देखा जा सकता है जिसमे एक वस्तु (छोटी या बड़ी) उसके निर्माण के बाद 100 अन्य और निर्मित करनी पड़ जाती है। और मकसद सब का एक ही होता है मानव के जीवन को सुगम बनाना।
बचपन मे माँ पापा या गुरु जी कुछ कहते थे, वही हम बच्चे करते भी थे। अब बड़े मे ये मानव निर्मित वस्तुए जैसे घर , गाड़ी ,कपड़े या पैसे जो कुछ भी नही कहते आज उनके लिए भी कर रहे है, जबकि जरूरत जितनी बचपन मे थी उतनी ही अभी तक बनी हुयी है।
भाड़े की चीज से लगाव एक समय सीमा तक ही रहता है, फिर ये कैसा लगाव जो भाड़े के साथ साथ नष्ट होने वाला भी है, उसके साथ भी है । यद्यपि सब जानते है कि स्वयं खुद का सरीर नश्वर है तथापि लगाव??
आप इसे होम सिकनेस कह ले या अकेलापन पर एहसास बचपन के जैसा कोई और नही॥ क्यू कि सच और सच के रास्ते के लगाव का एहसास झूँठ और गलत के रास्ते के एहसास से कही ज्यादा होता है।
अब जब बचपन छोड़ के आ ही चुके है तब तो समय से बस यही कह सकता हू।
ये उम्र कुछ कहा मैंने ,, पर शायद तूने सुना नही॥
तू छीन सकती है बचपन मेरा,, पर बचपना नही॥
सब जान के अंजान बनना और अंजाने मे अंजान बने रहना, समझ तो बस यही आता है कि अंतत : या तो अंजान ही जिंदगी है, या फिर जिंदगी ही अंजान है:
मेहनत से उठा हूँ, मेहनत का दर्द जानता हूँ
आसमाँ से ज्यादा जमीं की कद्र जानता हूँ।
लचीला पेड़ था जो झेल गया आँधिया,मैं मगरूर दरख्तों का हश्र जानता हूँ।
छोटे से बडा बनना आसाँ नहीं होता,जिन्दगी में कितना जरुरी है सब्र जानता हूँ।
मेहनत बढ़ी तो किस्मत भी बढ़ चली,छालों में छिपी लकीरों का असर जानता हूँ।
कुछ पाया पर अपना कुछ नहीं माना,क्योंकि आखिरी ठिकाना मेरा मिटटी का घर जानता हूँ.... .....................